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त्री ष॒धस्था॑ सिन्धव॒स्त्रिः क॑वी॒नामु॒त त्रि॑मा॒ता वि॒दथे॑षु स॒म्राट्। ऋ॒ताव॑री॒र्योष॑णास्ति॒स्रो अप्या॒स्त्रिरा दि॒वो वि॒दथे॒ पत्य॑मानाः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trī ṣadhasthā sindhavas triḥ kavīnām uta trimātā vidatheṣu samrāṭ | ṛtāvarīr yoṣaṇās tisro apyās trir ā divo vidathe patyamānāḥ ||

पद पाठ

त्री। ष॒धऽस्था॑। सि॒न्ध॒वः॒। त्रिः। क॒वी॒नाम्। उ॒त। त्रि॒ऽमा॒ता। वि॒दथे॑षु। स॒म्ऽराट्। ऋ॒तऽव॑रीः। योष॑णाः। ति॒स्रः। अप्याः॑। त्रिः। आ। दि॒वः। वि॒दथे॑। पत्य॑मानाः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:56» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सबके निवास के लिये ईश्वर ने जगत् बनाया, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर (त्री) तीन (सधस्था) साथ के स्थान (सिन्धवः) नदियाँ (उत) और (कवीनाम्) विद्वानों के (त्रिः) तीनबार (त्रिमाता) जन्म, स्थान और नाम इन तीनों को उत्पन्न करनेवाला (विदथेषु) वा जो संग्रामों और जानने योग्य व्यवहारों में (सम्राट्) उत्तम प्रकार भूमि में प्रकाशित है ऐसे पुरुष के सदृश (ऋतावरीः) जिनमें सत्य विद्यमान (योषणाः) जो स्त्रियों के सदृश वर्त्तमान (तिस्रः) स्थूल सूक्ष्म और कारण नामक (अप्याः) अन्तरिक्ष में होनेवाली सृष्टियाँ (विदथे) संग्राम में (पत्यमानाः) पति के सदृश आचरण करती हुई हैं उनको (त्रिः) तीनबार और (दिवः) तारागणों को रचता है, वही सबका स्वामी है ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिस परमात्मा ने सब प्राणी और प्राणिभिन्नों के निवास के लिये जल स्थल और अन्तरिक्ष रचे, उस स्वामी की पतिव्रता स्त्री के सदृश निरन्तर सेवा करो ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरेण सर्वेषां निवासाय जगद्रचितमित्याह।

अन्वय:

हे मनुष्या यो जगदीश्वरस्त्री सधस्था सिन्धव उतापि कवीनां त्रिस्त्रिमाता विदथेषु सम्राडिवर्तावरीर्योषणा इव तिस्रोऽप्या विदथे पत्यमानास्त्रिदिवो निर्मिमीते सएव सर्वाऽधीशोऽस्ति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्री) त्रीणि (सधस्था) सहस्थानानि (सिन्धवः) नद्यः (त्रिः) (कवीनाम्) विदुषाम् (उत) (त्रिमाता) त्रयाणां जन्मस्थाननाम्नां माता जनकः (विदथेषु) संग्रामादिषु विज्ञातव्येषु व्यवहारेषु (सम्राट्) यः सम्यग्राजते भूमौ (ऋतावरीः) ऋतं सत्यं विद्यते यासु ताः (योषणाः) योषाइव वर्त्तमानाः (तिस्रः) स्थूलसूक्ष्मकारणाख्याः (अप्याः) अप्स्वन्तरिक्षे भवाः (त्रिः) त्रिवारम् (आ) (दिवः) ज्योतींषि (विदथे) संग्रामे (पत्यमानाः) पतिरिवाचरन्तीः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः येन परमात्मना सर्वेषां प्राण्यप्राणिनां निवासाय जलस्थलान्तरिक्षाणि निर्मितानि तं पतिं पतिव्रतेव सततं सेवध्वम् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या परमेश्वराने सर्व प्राण्यांच्या व इतरांच्या निवासासाठी जल, स्थल, अंतरिक्ष निर्माण केलेले आहे. पतिव्रता स्त्री जशी निरंतर पतीची सेवा करते तशी त्याची सेवा करा. ॥ ५ ॥